2017

2016

2015

2014

Home » 2013
शोर इन द सिटी - डर, सपने, बन्दुक, लालच, भ्रष्टाचार, ईमानदारी, शोर, भीड़....

फिल्म की कहानी केन्द्रित हैं पांच मुख्य किरदारों अभय(सेंधिल रामामूर्ति), तिलक(तुषार कपूर), रमेश(निखिल द्विवेदी), मंदूक(पितोबश) और सावन(संदीप किशन) जो मुंबई शहर के शोर बीच सुकून से जीना चाहते हैं. अभय एक NRI हैं, जो भारत वापस आता हैं एक छोटा सा बिज़नस शुरू करने. तिलक एक बुक पब्लिशर हैं जो अपने दोस्त रमेश और मंडूक के साथ मिलकर लेखक का अपरहण करते हैं और उसकी आने वाली नई किताब की मेनुस्क्रिप्ट लेकर सबसे पहले छापने के लिए. सावन एक युवा क्रिकेटर हैं जिसका सपना देश के लिए खेलना लेकिन इस सपने की शुरुआत के लिए उसे पहले मुंबई अंडर-22 की टीम में चयन होना पड़ेंगा.

                          पूरी फिल्म शोर शराबे से परे एक अलग दुनिया की तरफ ध्यान खींचती हैं, ऐसी दुनिया जहाँ कुछ लोग डर से जी रहे हैं, लेकिन वो ही डर ही एक दिन उन्हें नई सुकून भरी ज़िन्दगी शुरू करने का मौका देती हैं चाहे उसके लिए उन्हें भले ही किसी गलत रास्ते से गुजरना पड़े. अभय को लोकल गुंडे प्रोटेक्शन मनी के नाम परेशान करते हैं, वरना वे उसे जान से

ये जवानी हैं दीवानी- 100 करोड़ क्लब की घटिया सोच

 फिल्म का नायक बिंदास, मस्तमौला, खुशमिजाज इंसान हैं, जिसे सफ़र करना बेहद पसंद हैं, नायिका एक मध्यमवर्गीय परिवार की सीधी-सादी, उदास लड़की हैं जिसने बचपन से लेकर अब तक अपनी ज़िन्दगी किताबों के बीच ही गुजारी हैं. एक दिन उसे अपनी स्कूल की दोस्त(कल्कि कोएचिन) मिलती हैं और उसे पता चलता हैं की वो नायक(रणबीर कपूर) और उसके दोस्त(आदित्य रॉय कपूर) के साथ मनाली घुमने जा रही हैं, नायिका अपनी किताबी-ज़िन्दगी से निजात पाना चाहती हैं और वो घर से भाग जाती हैं. मुझे यह बात अभी तक समझ में नही आई की एक बेहद सीधी सी चश्मीस लड़की ने इतना बड़ा कदम अचानक कैसे उठा लिया? पुरे सफ़र में नायक लडकियों को अपने पैंतरे में फंसाता रहता हैं और नायिका को उससे प्यार हो जाता हैं. फिर 8 साल बाद वो वापस मिलते कल्कि की शादी में, जहाँ नायक, नायिका से अपने प्यार का इजहार करता हैं, नायिका मान जाती हैं और एक चुम्बन दृश्य को दर्शको के सामने परोसकर फिल्म ख़त्म हो जाती हैं.

             फिल्म 1994 की ‘डीडीएलजे’, 2008 की ‘जब वी मेट’ और 2011 की ‘ज़िन्दगी ना

लाइफ ऑफ़ पाई- ईश्वरीय अस्तित्व से जुड़ा रोमांचक सफ़र

दक्षिण भारत के पांडिचेरी का एक बच्चा पिसीन मोलिटर उर्फ़ पाई, जिसका नाम उसके अंकल ने यूरोप के सबसे बड़े स्विमिंग पूल के नाम पर रख दिया क्यूंकि उन्हें तैराकी का बहुत शौक था| बचपन में स्कूल में उसके नाम ‘पिसीन’ का बहुत मजाक उड़ाया जाता हैं तो वो स्कूल के सारे ब्लैक-बोर्ड्स पर पाई की वैल्यू लिख कर अपना नाम पाई घोषित कर दिया| उसके पिताजी पांडिचेरी में चिड़ियाघर के मालिक हैं| उस चिड़ियाघर में तरह-तरह के कहीं जानवरों के बीच सबसे खतरनाक जानवर हैं, ‘बंगाल टाइगर-रिचर्ड पारकर’| रिचर्ड पारकर के नाम की कहानी भी पाई की तरह ही एक दम जुदा हैं, जिस शिकारी ने उसे चिड़ियाघर को बेचा था उसका नाम रिचर्ड पारकर था और बंगाल टाइगर का नाम थिर्स्टी, लेकिन डॉक्यूमेंट में नाम आपस में बदल गये| थोड़े दिन बाद हालत ऐसे बदल जाते हैं की उसके परिवार को भारत छोड़कर चिड़ियाघर के जानवरों के साथ कनाडा की यात्रा पर निकलना पड़ता हैं, लेकिन सफ़र में उनकी मुलाकात होती हैं भयंकर तूफ़ान से| जहाज के नाविक पाई को एक नाव पे फेंक देते हैं| पूरा जहाज डूब जाता हैं और पाई उस नाव पर एक लकडबग्गे, एक घायल ज़ेबरा और एक औरंगटाउन के साथ बच जाता हैं| लेकिन पाई की मुसीबत यही कम नही होने वाली थी, लकडबग्गा घायल ज़ेबरा को मार देता हैं, फिर औरंगटाउन को, वो पाई को भी मारने वाला होता हैं लेकिन तभी बोट के भीतर छुपा रिचर्ड पारकर लकडबग्गे को मार गिराता हैं| अब उस नाव पर सिर्फ दो विपरीत प्राणी बचे थे एक पाई और दूसरा रिचर्ड पारकर और यहाँ से शुरू होता हैं 227 दिनों का सफ़र| शुरुआत में रिचर्ड पारकर, पाई की जान का दुश्मन होता हैं पर बदलते वक़्त और हालातो के साथ दोनों दोस्त बन जाते हैं|

       फिल्म की कहानी ईश्वर पर विश्वास और जिंदा रहने की उम्मीद के इर्द-गिर्द घुमती हैं| 14 साल का पाई हिन्दू, इसाई, मुस्लिम तीनो धर्म में आस्था रखता हुआ अपनी जिंदगी जीने की

लूटेरा- एक मौन प्रेम

मैं बस एक कहानी कहना चाहता हूँ लूटेरा के रिलीज़ की कुछ दिन पहले विक्रमादित्य मोटवाने ने यह बात एक इंटरव्यू में कही थी. लूटेरा सिनेमाघरों में लग चुकी हैं और इसमें कोई दोहराय नहीं की विक्रमादित्य ने अपनी बात सही साबित न कर दिखाया हो.
      50 के दशक की यह क्लासिक प्रेम कहानी ग्रामीण बंगाल की पृष्ठभूमि से शुरुआत होती हैं जहाँ वरुण श्रीवास्तव(रणवीर सिंह) स्वयं को पुरातन इमारतों को विशेषज्ञ बता जमींदार के खेतों में खुदाई कर मंदिर से मुर्तिया और जवाहरात चुरा लेता हैं. लेकिन इससे पहले जमींदार के घर में रहते उसका दिल जमींदार की बेटी पाखी(सोनाक्षी सिन्हा) चुरा लेती हैं. दोनों एक-दुसरे के प्यार में पड़ जाते हैं. जमींदार को भी उनके रिश्ते से कोई एतराज़ नहीं होता हैं. सगाई वाले दिन अपने अपने चाचा के दबाव की वजह से वरुण मुर्तिया और जवाहरात लूट फरार हो जाता हैं और पाखी का दिल टूट जाता हैं.
      कुछ सालो बाद दोनों डलहौजी में ऐसे हालातों में मिलते हैं जब वरुण को पुलिस चप्पे-चप्पे पर ढूंढ रही होती हैं, अपने प्यार और पिता को खो चुकी पाखी ज़िन्दगी से इस कदर हताश हो जाती हैं की उसके मन में यह धारणा बन जाती हैं की जिस दिन खिड़की से बाहर पेड़ की सारी पत्तिया गिर जायेंगी उस दिन वो अपनी ज़िन्दगी की आखिरी साँसे गिन रही होंगी. यह निश्चित तौर पर ओ.हेनरी की लघुकथा ‘द लास्ट लीफ़’ से प्रेरित हैं, लेकिन असल में विक्रमादित्य ने ‘द लास्ट लीफ़’ से परे एक ऐसी प्रेम कहानी दिखाई जिसमें ठहराव हैं जो आपको प्रेमी-प्रेमिका से जुडाव महसूस कराती हैं.
       फिल्म की शुरुआत में नायक की नायिका से टक्कर हो जाती हैं. अगले दृश्य में नायक जमींदार के घर में उसके साथ बैठा हैं, नायिका चाय परोसती हैं. जमींदार नायक से उसके सीर पर लगी चोट के बारे में पूछता हैं और नायक-नायिका की निगाहें एक दुसरे में समां जाती हैं. नायिका की निगाहें उसे सच न बताने की बात जाहिर करती हैं तो नायक की निगाहें नायिका की निगाहों में इस कदर खो जाती हैं की वो कोई बहाना भी नहीं ढूंढ पाता और सच को इधर-उधर घुमाने लगता हैं, फिर नायिका उसके हाथ पर जानबूझकर चाय गिराकर चली जाती हैं और यहाँ पैदा होता हैं दोनों के बीच प्रेम का आतंरिक आकर्षण. अपनी पहली ही प्रेम पृष्टभूमि पर बुनी फिल्म से निर्देशक विक्रमादित्य ने खुद को करण जौहर, यश चोपरा जैसे रोमांस किंग से उलट खुद को एक अलग मुकाम पर स्थापित किया. करण जौहर, यश चोपरा भी लव एट फर्स्ट साईट की बात करते थे लेकिन उनकी फ़िल्मों का इश्क मुलाकात, दोस्ती, फिर मुलाकात, नायक-नायिका के बीच प्रेम संवाद की सीढियां चढ़ते हुए मंदम गति से परवान चढ़ता था. लेकिन विक्रमादित्य बस एक कहानी कहना चाहते हैं जिसे वो बेवजह खींचना नहीं चाहते और साथ ही वो एक बात पर भी अमल करते हो की वक़्त की नजाकत को समझो यारो, इश्क कभी न कभी तो होना ही हैं, फिर आज ही क्यूँ नहीं? 
 
     लूटेरा में नायक-नायिका के बीच प्रेम का आधार किसी प्रकार का कोई बाहरी आकर्षण नहीं बल्कि

मैं, मेरी तन्हाइयो से अक्सर, यही बातें किया करता हूँ....

i wrote some lines 4-5 months ago, when i feel very lonely.....

दूर हो रहा हूँ मैं सबसे,
या सब दूर हो रहे हैं मुझसे,
मैं अच्छा हूँ या बुरा,
एक बार बता दे मुझे,
मैं सबको समझने वाला,
आज खुद को न समझ पा रहा हूँ,
मैं, मेरी तन्हाइयो से अक्सर,
यही बातें किया करता हूँ....


अकेलेपन में देती तू साथ,

पन्ने

हमें भी कभी शौक था,
रोज डायरी लिखने का,
बस एक दिन तेजी से पलटे,
पन्ने मेरी ज़िन्दगी के,
कुछ पन्ने बतलाते,
जख्मो भरी स्याहीं से लिखे नगमे,
कुछ बतलाते,
उदासी सी फीकी स्याहीं से लिखे अफ़साने,
कोशिश की कुछ लिखूँ,
मोहब्बत के बारे में,
पर आंसुओ में गिले थे,
पन्ने मेरे दिल के,
उनके इंतज़ार में,
हम बस लिखते चले गये,
और वो आये भी तो,
खुद को बिना दिल का हवाला दे,
उड़ा दिए पन्ने हवा में,
अरे यारो! कितने कमबख्त निकले,
मेरे लिखे हर एक पन्ने,
उड़ते जा पहुंचे.
हर गली-मोहल्ले,
पहले से यह बदनाम मोहब्बत,
बेखबर न रही अब जमाने से,
जिसने उडाये थे हवा में पन्ने,
हम जा ठहरे गुनहगार उनके....

दूसरी दुनिया

न जाने मैं कहाँ चला जा रहा था| मौसम भले ही सुहावना था पर जिस रास्ते पर मैं चल रहा था वो कुछ रेगिस्तान सा प्रतीत हो रहा था| आस पास कंटीली झाड़ियाँ, चमकती रेत जिस पर आसानी से चला जा सकता था| दूर दूर कुछ पेड़ नजर आ रहे थे, तकरीबन हर पेड़ के बिच २०० मीटर का फासला होंगा| मैं धीरे धीरे आगे बढते हुए दायें बाएं देखे जा रहा था, इंसान तो दूर, पंछियों के उड़ने की भी कहीं आहट नही थी| थोड़ी देर में रास्ता चढ़ाव का रूप ले रहा था| मुझे ना जाने क्यूँ बस आगे बढ़ते जाना था| मैं यह सोच भी नही रहा था की आखिर मैं जा कहाँ जा रहा हूँ|
              थोडा और चलने के बाद मैं रुक गया, मेरे सामने दो रास्ते थे, मेरे सामने संकरा और मेरी दायीं तरफ चौड़ा| दोनों ही रास्तो के किनारे पर कंटीली झाड़ियाँ का घेराव था| मैंने बिना वक़्त बर्बाद किए संकरे रास्ते की तरफ बढ़ना शुरू किया जिसका चढ़ाव पहले के मुकाबले थोडा ज्यादा था| मैं चढाव पे बेझिझक चढ़ा जा रहा था, ना बाएं देख रहा था, ना दायें, ना ही कुछ सोच रहा था, बस चला जा रहा था| चढ़ाव खत्म होते ही मैं दायें मुडा, मेरे सामने उबड़-खाबड़ सा मैदान था| कहीं छोटे खड्डे, कहीं बड़े, वो ही कंटीली झाड़ियाँ, 200 मीटर के फासले पर पेड़| इधर-उधर कोई नजर नहीं आ रहा था| धीरे-धीरे आगे बढ़ने के बाद एक ऊँचे स्थान पर चढ़ा| वहाँ खड़े होकर आगे की तरफ नजर डाली तो नजारा बदल चुका था, छोटे-छोटे तालाब, उनके आसपास अब वो कंटीली झाड़ियाँ नही थी| दूर कोई बहुत पुराना सा किला नजर आ रहा था|
              तभी कुछ आवाज सुनाई दी, मैंने बिना पलक झपकाए पीछे देखा,

DBMS की बेवफाई




वो Dbms पढ़ा रहे थे,
हम उन्हें देख रहे थे,
वो लग रही थी,
Database के record जैसी,
मुझे बनना था,
उस record की primary key,
उनकी आँखों की table से,
मेरे दिल की table में,
एक अजीब सा नशा,

राजनीति से परे युवा


                              “आजकल के युवाओं को राजनीति से नफरत है, लेकिन राजनीति ही किसी देश का भविष्य तय करती है-चाणक्य| क्या यह पूर्णतया: सच हैं? सच ही होगा, आखिर चाणक्य जैसा इतना बड़ा विद्वान् गलत कैसे कह सकता हैं| सिर्फ चाणक्य ही नहीं बहुतो के मुंह से आपने यह सुना होगा| इसका सीधा तात्पर्य यह हुआ की देश का भविष्य इसलिए अँधेरे की और बढ़ रहा है क्यूंकि कोई भी युवा राजनीति में दिलचस्पी नही दिखा रहा और कोई दिखा भी रहा हैं तो सिर्फ कॉलेज-यूनिवर्सिटी चुनाव तक, फिर हर कोई यहीं कहता हैं की राजनीति एक गन्दा कीचड़ हैं, भाई पैर मत घुसैयो| 
        कोई डॉक्टर बनना चाहता हैं, कोई इंजीनियर, कोई शिशक, पर जब बात राजनीति की आए सब युवा पीछे हट जाते है| वर्तमान में ८५-९०% से ज्यादा नेता सीनियर सिटीजन की टिकट के साथ देश की गाड़ी चला रहे हैं| आखिर क्यूँ? चाणक्य की बात पर तो हर कोई अमल कर लेता हैं, पर बेवजह युवाओं को कठगरे में खड़ा करना भी कहाँ तक जायज हैं? मैं आपको अपनी एक छोटी सी घटना सुनाता हूँ, फिर शायद आप युवाओं पे दोष मढने से पीछे हटे| 
         मैं हर रोज की तरह उस दिन भी जोधपुर की रेलवे कॉलोनी के हनुमान मंदिर जा रहा था| मेरी नजरे सामने कम, अपने मोबाइल में ज्यादा थी, जो आज के हर नौजवान में यह खूबी

Jee, Jaise Aap ki Marzi...!!!


                                              Koi bhi lekhak kuch bhi likhne se pahle yehi sochta hai ki kaha se shuruaat karu, lekin main yeh soch raha hu ki kahan se shuruaat naa karu. Director Dr. Vikas Kapoor ne khoobsurat patkatha ko kirdaaro me utaarkar apne behatreen nirdeshan ke bal par ek aisa chalchitra prastut kiya ki, mere shabd unke pratibha ke sath nyay nhi kar paane ke dar se katra rahe hai. Fir bhi ek choti si koshish….
                                              “jee, jaise aap ki marzi…!!!”, ek aisa naatak jo sirf samaaj ko yeh nhi sikhaata ki naari ke sath kaisa vyavahaar kiya jaaye, kyunki yeh kaam toh bahut log karte the, kar rahe hai aur karte rahenge. Lekin fir bhi halaat nhi badal rahe hai, kyunki agar aap vaastav mein kuch badlna chaahte hai toh ek nayi soch logo tak pahunchaane padegi, kyunki badlte waqt ke sath badlaav jaruri hai. Kisi bhi chauraahe pe khada thele waala, har roz apne ek hi tarike se graahak ko apni aur khinchna chaahta hai aur fir bhi who safal nhin ho paata, toh use sirf ek cheeze ki jarurat hai aur who hai badlaav ki.
                                               Yeh ek nayi soch bhara naatak hai jisme yeh bataane ki koshish ki hai ki naari ke saath accha vyavahaar karne se hi kuch nhi badlega, badlna toh khud naari ko hi padega, kyunki naari ki asli kamjori khud naari hai. Naatak ke charo kirdaar Deepa Rai, Varsha Pote, Bublee Tondon aur sabse khoobsurat abhinay wala kirdaar Sultana.
                                                Deepa, 11-12 saal ki tedhe-medhe daant waali cute girl, jisne apne maasumiyat bhare abhinay se bilkul dabangg style mein naatak ki shuraat ki, us nanhi si jaan ko uski daadi andheri kothri mein band kar de aur who bechaari darr se tadpati reh yaa fir uski behan ko free railway hospital mein admit kiya gaya,  jahan uski maut ho jaati hai, toh uska jimmedaar kaun?. Agar aap soch rahe ho ki daadi, uske pita, uska bhai, toh main iss baat ko seere se nakaarta hu.  Miss Pratibhaji ne bhi apni speech mein bhi yehi kahan ki ek aurat, ek aurat ke sath aisa kaise kar sakti hai, lekin meri najar mein Deepa aur uski behan ka koi asli gunahgaar tha toh who thi uski maa. Uski maa ne Deepa ke haq mein aawaj nhi uthaayi toh uska khaamiyaza apni badi beti ke maut se bhugatna pada.


                                               Varsha, jisne vyask ladki ka kirdaar nibhaaya hai, who apne chehre

इश्क गजब का शहर हैं..

इश्क गजब का शहर हैं..
यहाँ करोडो की भीड हैं..
दिल एक पर आता है..
प्यार करना आता नहीं..
फिर भी किसी अजनबी पर..
प्यार आ जाता हैं..

चल पडते हैं इश्क के सफर पर..
सफर में ही रह जाते हैं..
थामे हाथ लोग कसमें खाते..
कसमें ही जुदा कर देती हैं..

न जाने कितने दिल टुटे..
मिलकर भी कुछ ना मिले..
कुछ दिल ऐसे मिले..

यह कैसा मुल्क है अपना....

यह कैसा मुल्क है अपना....
जहाँ गरीब रोटी को रोता...
अमीर रोता मनी को...
जनता चाहती विकास को...
तो सरकार दिखाती विकास दर को...

यह कैसा मुल्क है अपना....
जहाँ वोट बैंक के खातिर....
हिन्दु आतंकवाद नजर आता हैं....
99 पैसे जनता तक पहुँचा कर भी....

स्वागत नहीं करोगे आप हमारा?....



सेमेस्टर चेतावनी: कमजोर दिल वाले TALENTED विधार्थी पंक्तियो पे ज्यादा गौर न करे, यह 4th सेमेस्टर की खुली काल्पनिक चेतावनी है, इसका वास्तविक जीवन से कोई लेना देना नहीं है....



भाईयो और लडकियो,
कब तक ऐश करोगे,
फिर से रोज की किच-किच,
वहीं नोट्स का झमेला....
आया हुँ फिर लौट के,
स्वागत नहीं करोगे?....

syllabus हैं थोडा भारी,
हैं group discussion भी,
discuss करो इस बात की,
आखिर mca ही क्यूँ की....

e-commerce के फेर में,
commercial बाबू बन जाओगे,
artificial intelligence पढ के,

GUM ka MAYKHANA


Firstly happy new year to all of u.
                                                     Tanuj(20’, cute) 31st ko apne mauhalle ke chauraahe pe akela baitha tha. Wo apni gardan neeche kar ke zameen ko ghur raha tha. Raat ki takariban 11:30 baj rahi thi. Chaaro taraf shanti hi shanti chaayi huyi thi. Dur dur tak kisi kutte ke bhokne ki aawaj bhi nhi sunaayi pad rahi thi, shayad wo bhi kisi kaune mein talli hokar pade ho. Tanuj ke sabhi friends sharaab ki party karne farm-house gaye huye the. Tanuj ko sharaab se nafrat hai so usne sath chalne se mana kar diya.
                                                                                                                Tabhi uss chauraahe se ek sharaabi gujarta hai, nashe mein chur, aankhe ekdum lal, bikhare huye baal, ladkhadaati pair. Tanuj ko sharaab ki badbu ka ehsaas hote hi apni gardan upper karke sharaabi ki taraf dekhta hai. Achanak sharaabi ki najar bhi tanuj pe padti hai, tanuj ki najre toh pahle se hi uss par tiki huyi thi. Tanuj ko dekhte hi sharaabi apne ladkhadaate kadam rokta hai. Dono ek dusre ko ghurna shuru karte hai.
Sharaabi - (ladkhadaate huye) kaun hai abe tu?
Tanuj – (kadak aawaj mein) tera baap.
Sharaabi dheere dheere ladkhadaate huye kadamo se tanuj ki taraf badhta hai. Tanuj apni taraf aate uss sharaabi ko ghure jaa raha hai. Sharaabi tanuj ke saamne jaakar khada hota hai. Badbu aur badh jaane se tanuj apni naak pe hath rakhta hai.
sharaabi – (in rowedy voice) ab bol kaun hai tu?
Tanuj – (tough expression) bola na tera baap.
Sharaabi – (ladkhadaate huye) baap hai toh biwi baccho ka khyaal rakh na, baahar akela kya kar raha hai?