मैं बस एक कहानी कहना चाहता हूँ लूटेरा के रिलीज़ की कुछ दिन पहले विक्रमादित्य मोटवाने ने यह बात एक इंटरव्यू में कही थी. लूटेरा सिनेमाघरों में लग चुकी हैं और इसमें कोई दोहराय नहीं की विक्रमादित्य ने अपनी बात सही साबित न कर दिखाया हो.
      50 के दशक की यह क्लासिक प्रेम कहानी ग्रामीण बंगाल की पृष्ठभूमि से शुरुआत होती हैं जहाँ वरुण श्रीवास्तव(रणवीर सिंह) स्वयं को पुरातन इमारतों को विशेषज्ञ बता जमींदार के खेतों में खुदाई कर मंदिर से मुर्तिया और जवाहरात चुरा लेता हैं. लेकिन इससे पहले जमींदार के घर में रहते उसका दिल जमींदार की बेटी पाखी(सोनाक्षी सिन्हा) चुरा लेती हैं. दोनों एक-दुसरे के प्यार में पड़ जाते हैं. जमींदार को भी उनके रिश्ते से कोई एतराज़ नहीं होता हैं. सगाई वाले दिन अपने अपने चाचा के दबाव की वजह से वरुण मुर्तिया और जवाहरात लूट फरार हो जाता हैं और पाखी का दिल टूट जाता हैं.
      कुछ सालो बाद दोनों डलहौजी में ऐसे हालातों में मिलते हैं जब वरुण को पुलिस चप्पे-चप्पे पर ढूंढ रही होती हैं, अपने प्यार और पिता को खो चुकी पाखी ज़िन्दगी से इस कदर हताश हो जाती हैं की उसके मन में यह धारणा बन जाती हैं की जिस दिन खिड़की से बाहर पेड़ की सारी पत्तिया गिर जायेंगी उस दिन वो अपनी ज़िन्दगी की आखिरी साँसे गिन रही होंगी. यह निश्चित तौर पर ओ.हेनरी की लघुकथा ‘द लास्ट लीफ़’ से प्रेरित हैं, लेकिन असल में विक्रमादित्य ने ‘द लास्ट लीफ़’ से परे एक ऐसी प्रेम कहानी दिखाई जिसमें ठहराव हैं जो आपको प्रेमी-प्रेमिका से जुडाव महसूस कराती हैं.
       फिल्म की शुरुआत में नायक की नायिका से टक्कर हो जाती हैं. अगले दृश्य में नायक जमींदार के घर में उसके साथ बैठा हैं, नायिका चाय परोसती हैं. जमींदार नायक से उसके सीर पर लगी चोट के बारे में पूछता हैं और नायक-नायिका की निगाहें एक दुसरे में समां जाती हैं. नायिका की निगाहें उसे सच न बताने की बात जाहिर करती हैं तो नायक की निगाहें नायिका की निगाहों में इस कदर खो जाती हैं की वो कोई बहाना भी नहीं ढूंढ पाता और सच को इधर-उधर घुमाने लगता हैं, फिर नायिका उसके हाथ पर जानबूझकर चाय गिराकर चली जाती हैं और यहाँ पैदा होता हैं दोनों के बीच प्रेम का आतंरिक आकर्षण. अपनी पहली ही प्रेम पृष्टभूमि पर बुनी फिल्म से निर्देशक विक्रमादित्य ने खुद को करण जौहर, यश चोपरा जैसे रोमांस किंग से उलट खुद को एक अलग मुकाम पर स्थापित किया. करण जौहर, यश चोपरा भी लव एट फर्स्ट साईट की बात करते थे लेकिन उनकी फ़िल्मों का इश्क मुलाकात, दोस्ती, फिर मुलाकात, नायक-नायिका के बीच प्रेम संवाद की सीढियां चढ़ते हुए मंदम गति से परवान चढ़ता था. लेकिन विक्रमादित्य बस एक कहानी कहना चाहते हैं जिसे वो बेवजह खींचना नहीं चाहते और साथ ही वो एक बात पर भी अमल करते हो की वक़्त की नजाकत को समझो यारो, इश्क कभी न कभी तो होना ही हैं, फिर आज ही क्यूँ नहीं? 
 
     लूटेरा में नायक-नायिका के बीच प्रेम का आधार किसी प्रकार का कोई बाहरी आकर्षण नहीं बल्कि
अन्तर्मन में उत्पन्न ऐसा आकर्षण हैं जो घुटनों के बल पर चलते छोटे बच्चे के समान हैं जिसे यह नहीं मालुम की मुड़ना किधर हैं और कब?, वो बस आगे बढ़ता रहता हैं, आने वाले पल की फिकर किये बिना. वरुण को पाखी से प्यार होते हुए भी वो अपने चाचा द्वारा दिये गए दायित्व का पूर्ण निर्वाह करने के खातिर प्रेम से नाता तोड़ने की कोशिश करता हैं लेकिन आखिर कब तक?. ‘मोंटा रे’ गाने के लिए अमिताभ भट्टाचार्य के बोल भी कुछ यही बयान करते हैं कागज़ के दो पंख लेके उड़ा चला जाये रे, जहाँ नहीं जाना था वहीँ चला जाये रे.
     लेकिन आखिरकार वरुण को उसके चाचा के दिये दायित्व का निर्वाह करना पड़ता हैं अपने प्यार को धोखा को देकर. प्रेम के भी अपने-अपने मायने होते हैं एक प्रेम अतीत से जुड़ा होता हैं तो एक आने वाले कल से और जीत हमेशा अतीत की ही होती हैं, शायद इसका एक कारण यह भी हो सकता हैं की अतीत ने ही तो उसे आने वाले कल के सपने देखने का मौका दिया. चाचा ने उसे पाला-पोषा बड़ा किया उनसे एक अलग प्रेम जुड़ा हैं जिसने ज़िन्दगी दी, और पाखी के प्यार के साथ उसके आने वाले कल के सपने थे.
     इंटरवल के बाद नायिका डलहौजी में हैं जहाँ उसने खुद को एक घर में बंद करके रखा हैं. वो अपने दर्द को लिखना चाहती हैं लेकिन वरुण की अच्छी यादें उसे उस दर्द को कागज पर न्याय नहीं करने दे रही हैं. वो वरुण से हर पल नफरत करने की कोशिश करती हैं लेकिन उस नफरत में भी वो अपने प्यार को न छुपा पायी. पहले पुलिस की मदद करने के बाद वरुण को अपने सामने वापस पाकर उसके दिल में फिर से एक चाह पैदा हुई. जिस तरह आत्मा नहीं मरती उस तरह प्रेम भी कभी नष्ट नहीं होता, हाँ थोड़े से अन्तराल के लिए उससे खुद को दूर पाकर नफरत पैदा करने की कोशिश करोंगे लेकिन वो सिर्फ उसकी कमी को दुर करने की एक असफल कोशिश हैं.
     पाखी वरुण को दुबारा पाकर फिर खोना नहीं चाहती वो चाहती हैं की वरुण आखिरी साँसों तक उसके साथ रहे, जब तक पेड़ की आखिरी पत्ती न गिर जाए, लेकिन वरुण ने अपने बुरे काम से पहले ही पाखी का दिल दुखाया था और अब वो दुबारा ऐसा नहीं करना चाहता, वो उसके जेहन में ज़िन्दगी जीने उम्मीद जगाकर चला जाता हैं....मुझे छोड़ दो मेरे हाल पे जिंदा हूँ यार काफी हैं.      
           फिल्म की शुरुआत में पाखी को उसके पिता एक राजा की कहानी सुनाते हैं जिसने अपनी जान को एक तोते में छुपा रखी थी इसलिए अंग्रेज उसे मारने में असफल थे. फिर उन्होंने एक रणनीति रची और एक जासूस भेजा जिससे राजा को प्रेम हो गया और उसने जंगल में हजारों तोतो में से असली तोते का पता लगा लिया और उसे मार दिया. पाखी बंद कमरे में खिड़की से बाहर पेड़ की पत्तिया देखकर यही सोचती की पत्तिया उसका तोता हैं जिसमे उसकी जान छिपी हैं, जिस दिन सारी पत्तिया गिर जायेंगी, उस दिन उसका तोता मर जायेंगा और वो भी. विक्रमादित्य ने फिल्म में दो तोतो की बात कही हैं एक तोता पेड़ की पत्तिया हैं जो पाखी के जेहन में जिंदगी ख़त्म होने की निराशा जगाता हैं, तो दूसरा तोता वरुण का मास्टरपीस हैं जिसे वो बचपन से बनाना चाहता था, पेड़ की आखिरी पत्ती जिसे वो पेड़ की टहनी से बाँध देता हैं, अगली सुबह पाखी को पेड़ पर आखिरी पत्ती बची दिखती हैं और वो समझ जाती हैं की वो पत्ती वरुण का मास्टरपीस हैं क्यूँकि उसे पत्ती अच्छे से बनानी नहीं आती और वो हंसती हैं. दूसरा तोता पाखी के जीने की उम्मीद को बरकरार रखता हैं.  
     ‘उड़ान’ की तरह इस फिल्म में भी किरदारों की भरमार नहीं हैं जिससे कहानी कहने में जटिलता आए. अमित त्रिवेदी का संगीत और अमिताभ के गीत आपको गुनगुनाने पर मजबूर कर देंगे. फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर इतना लाजवाब हैं जैसे मानो उसे पता हो की उसे कब और कैसा बजना हैं. सिनेमेटोग्राफी दो हिस्सों में बंटी हुई हैं एक हिस्सा इंटरवेल के पहले ग्रामीण बंगाल का तो दूसरा हिस्सा इंटरवेल के बाद डलहौजी का जिसमें 1953 को खूबसूरती से दिखाया गया हैं.
      रणवीर सिंह जिन्होंने ‘बेंड बाजा बारात’ और लेडीज वर्सेज रिक्की बहल’ में चुलबुले किरदार निभाये यह फिल्म उनके करियर के लिए मील का पत्थर साबित होंगी. उन्हें बेहद शांत और सहज अभिनय किया हैं लेकिन फिल्म के आखिरी दृश्यों में जब वो गुस्से में सोनाक्षी पर चिल्लाते हैं तो उसमे उनकी पिछली फ़िल्मों के किरदार की थोड़ी झलक दिखाई पड़ती हैं. सोनाक्षी सिन्हा जिन्होंने ‘दबंग’, ‘सन ऑफ़ सरदार’, ‘राऊडी राठौर’ में ऐसे किरदार निभाये जिनकी जरुरत सिर्फ नाचने-गाने रोमांस तक ही सीमित थी, उन्होंने इस फिल्म में रणवीर से भी बेहतरीन अभिनय किया हैं. रणवीर-सोनाक्षी को अपनी ज़िन्दगी इससे अच्छे किरदार निभाने का शायद ही मौका मिले.
       यह फिल्म एक ख़ास विशेष वर्ग के लोगो के लोगो के लिए बनी हैं जो वास्तविकता में असली सिनेमा देखना चाहते हैं, उन लोगो के लिए नहीं जो बस सिनेमा इस मुहीम पर देखने आते हैं की उन्हें हर बार आइटम सोंग, रोमांस, एक्शन, कॉमेडी से भरी एक पूरी थाली परोसी जायेंगी. यह फिल्म उन लोगो के लिए भी नही हैं जो आशिकी-२ को भी पाँच में से तीन स्टार देते हैं और लूटेरा को भी तो आप इस बात का अंदाज़ा लगा सकते हैं की उन लोगो को सिनेमा की कितनी समझ होंगी. ‘उड़ान’ की सफलता के बाद बतौर निर्देशक विक्रमादित्य की यह दूसरी फिल्म हैं. जिन लोगो ने ‘उड़ान’ देखी हैं वो इस फिल्म को निश्चित रूप से देखेंगे और उन्हें पसंद भी आयेंगी और जिन लोगो ने ‘उड़ान’ नहीं देखी हैं, तो ‘लूटेरा’ देखने के बाद ‘उड़ान’ देखने की मंशा उनके जेहन में जरुर जागेगी.