फिल्म का नायक बिंदास, मस्तमौला, खुशमिजाज इंसान हैं, जिसे सफ़र करना बेहद पसंद
हैं, नायिका एक मध्यमवर्गीय परिवार की सीधी-सादी, उदास लड़की हैं जिसने बचपन से
लेकर अब तक अपनी ज़िन्दगी किताबों के बीच ही गुजारी हैं. एक दिन उसे अपनी स्कूल की
दोस्त(कल्कि कोएचिन) मिलती हैं और उसे पता चलता हैं की वो नायक(रणबीर कपूर) और
उसके दोस्त(आदित्य रॉय कपूर) के साथ मनाली घुमने जा रही हैं, नायिका अपनी
किताबी-ज़िन्दगी से निजात पाना चाहती हैं और वो घर से भाग जाती हैं. मुझे यह बात
अभी तक समझ में नही आई की एक बेहद सीधी सी चश्मीस लड़की ने इतना बड़ा कदम अचानक कैसे
उठा लिया? पुरे सफ़र में नायक लडकियों को अपने पैंतरे में फंसाता रहता हैं और
नायिका को उससे प्यार हो जाता हैं. फिर 8 साल बाद वो वापस मिलते कल्कि की शादी
में, जहाँ नायक, नायिका से अपने प्यार का इजहार करता हैं, नायिका मान जाती हैं और
एक चुम्बन दृश्य को दर्शको के सामने परोसकर फिल्म ख़त्म हो जाती हैं.
फिल्म 1994 की ‘डीडीएलजे’, 2008 की
‘जब वी मेट’ और 2011 की ‘ज़िन्दगी ना
मिलेंगी दोबारा’ का मिश्रण हैं. सबसे पहले बात
करते हैं ‘डीडीएलजे’ की, दीपिका का चश्मीस किरदार सिमरन के चश्मीस किरदार से
प्रेरित हैं, जो कभी भी कहीं भी अपने दोस्तों के साथ घुमने नहीं गयी. उस फिल्म में
नायक-नायिका सफ़र में मिलते हैं और उन्हें आपस में कब प्यार हो जाता हैं उन्हें पता
ही नहीं चलता लेकिन दर्शक इस बात से अनजान नहीं रहते, वो राज-सिमरन के प्यार में
इतना खो जाते हैं की 1994 की यह ऑल टाइम ब्लाकबस्टर आज भी मुंबई के एक मराठी थिएटर
में चल रही हैं. अब मैं इस बात फिल्म की करू तो सफ़र में नायक को नायिका से प्यार
नहीं होता, वो 8 साल बाद अमेरिका से आने के पहले उसने कभी नायिका से फ़ोन पे बात
नहीं की, उदयपुर में फिल्माई गयी शादी में भी उसका मिजाज पहले जैसा ही रहता हैं
लेकिन अचानक नायिका को उसके किसी दोस्त के साथ देखकर उसे प्यार हो जाता हैं, फिर दोनों
के बीच चुंबन दर्शको के सवालों पर ताला लगा देती हैं.
2008 की इम्तिआज़ अली निर्देशित ‘जब वी
मेट’ में इंटरवेल से पहले आदितय और गीत ट्रेन में मिलते हैं, आदित्य खामोश, गुमशुम
सा रहता हैं और गीत एकदम मस्त, बेफिक्र, लेकिन आदित्य उसके साथ रहकर उसके जैसा बन
जाता हैं. इस फिल्म में दोनों भी ट्रेन में मिलते हैं लेकिन बस उसका थोडा उल्टा
हैं नायक बेफिक्र रहता हैं और नायिका गुमशुम.
जोया अख्तर निर्देशित 2011
की सबसे बेहतरीन फिल्म के एक दृश्य की हुबहू नक़ल हैं. आपको अगर याद हो तो ‘ज़िन्दगी
ना मिलेंगी दोबारा’ के शुरूआती दृश्य जब खाने की टेबल पर फरहान, अभय के लिए कुछ
शब्द कहता हैं जिसमे वो उसकी तारीफ़ भी करता हैं और टांग भी खींचता हैं. कुछ ऐसा ही
दृश्य इस फिल्म में बदतमीज़ गाने से पहले हैं जब दीपिका कल्कि के लिए भी कहती हैं.
अयान मुखर्जी बॉलीवुड के वो युवा
निर्देशक हैं जिनकी पहली फिल्म ‘वेक उप सिड(2009)’ से वो रातो-रात बी-टाउन की
खबरों में छा गये. 4 साल बाद जब वो वापस लौटे ‘यह जवानी हैं दीवानी’ के साथ तो सब
उम्मीद कर रहे थे की उनकी वापसी धमाकेदार होंगी लेकिन लगता हैं इस बार अयान को
किसी ने जगाया ही नहीं वो बस सोते रह गये. पूरी फिल्म में कहानीकार कभी प्यार
दिखाता हैं, कभी फ़्लर्ट, कभी ट्रैकिंग करने का जज्बा, कभी आदित्य के जुए खेलने की
आदत, तो कभी अपने तरीके से जीने के ख्वाब, इतनी चीजों के बीच दर्शक इतना उलझ जाते
हैं की वो बस यह इंतज़ार करते हैं की कब बदतमीज़ गाना आयेंगा, या फिर दिल्ही वाली
गर्लफ्रैंड. क्यूंकि इस फिल्म के गाने ही दर्शको को गुनगुनाने पर मजबूर करते हैं, गाना
ख़त्म होते ही हॉल में सन्नाटा छा जाता हैं.
‘रॉकस्टार’ और ‘बर्फी’ में अपने
अभिनय का लौहा मनवाने का बाद रणबीर कपूर ने अपनी परफॉरमेंस से बिल्कुल भी निराश
नहीं किया. आदित्य रॉय कपूर ने भी अच्छा अभिनय किया खासकर उन दृश्यों में जब वो पी
रहे होते हैं क्यूंकि ‘आशिकी 2’ से इस काम में वो बखूबी माहिर हो गये हैं. दीपिका
की मुस्कराहट और कमर लाजवाब हैं. कल्कि का किरदार ‘ज़िन्दगी.....’ से बिलकुल भी अलग
नहीं हैं.
फिल्म के सबसे अच्छे दृश्य रणबीर और फारुख शेख,
जिन्होंने ने रणबीर के पिता का किरदार निभाया हैं, के बीच हैं, दोनों को एक-दुसरे
की फ़िक्र हैं, जो वर्तमान में मध्यमवर्गीय युवा की कहानी बयां करते हैं की आज का
युवा अपने खुद के इक्कट्ठे किए रुपयों से घुमने जाना चाहता है, वो अपने पिता से एक
रुपया भी नही लेता, और पिता भी अपने जिम्मेदारी को बखूबी निभाते हुए उसे पूरी
आजादी से जीने का मौका देता हैं. लेकिन दुबारा मैं दोहराऊंगा ऐसा ही दृश्य
‘डीडीएलजे’ में भी था शाहरुख़ खान और अनुपम खेर के बीच.
भले ही बॉलीवुड के कहीं दिग्गज कहते हैं की 100 साल में बॉलीवुड काफी बदल
चुका हैं, लेकिन अयान ने उन सभी धारणाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया. फिल्म में
देखने लायक कुछ भी नया नहीं हैं. लेकिन फिर भी फिल्म 100 करोड़ के क्लब में शामिल
हो तो हिन्दुस्तान के दर्शको की घटिया सोच हैं. साथ ही फिल्म ने यह भी साबित कर
लिया की अगर बॉक्स-ऑफिस पर कमाना हैं तो तो बड़ी स्टारकास्ट के साथ ठुमके लगाने
वाले गाने होने चाहिए, नये प्रयोग आपको वाह-वाही दे सकते हैं रूपये नहीं और अगली
फिल्म वाह-वाही से नहीं बन सकती जरुरत तो रुपयों की ही पड़ेंगी. मैं इस फिल्म को
डेढ़ स्टार दूंगा, आधा स्टार रणबीर के डांस के लिए, आधा स्टार प्रीतम के म्यूजिक के
लिए और आधा स्टार माधुरी दीक्षित के घाघरे के लिए.
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