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पन्ने

हमें भी कभी शौक था,
रोज डायरी लिखने का,
बस एक दिन तेजी से पलटे,
पन्ने मेरी ज़िन्दगी के,
कुछ पन्ने बतलाते,
जख्मो भरी स्याहीं से लिखे नगमे,
कुछ बतलाते,
उदासी सी फीकी स्याहीं से लिखे अफ़साने,
कोशिश की कुछ लिखूँ,
मोहब्बत के बारे में,
पर आंसुओ में गिले थे,
पन्ने मेरे दिल के,
उनके इंतज़ार में,
हम बस लिखते चले गये,
और वो आये भी तो,
खुद को बिना दिल का हवाला दे,
उड़ा दिए पन्ने हवा में,
अरे यारो! कितने कमबख्त निकले,
मेरे लिखे हर एक पन्ने,
उड़ते जा पहुंचे.
हर गली-मोहल्ले,
पहले से यह बदनाम मोहब्बत,
बेखबर न रही अब जमाने से,
जिसने उडाये थे हवा में पन्ने,
हम जा ठहरे गुनहगार उनके....

दूसरी दुनिया

न जाने मैं कहाँ चला जा रहा था| मौसम भले ही सुहावना था पर जिस रास्ते पर मैं चल रहा था वो कुछ रेगिस्तान सा प्रतीत हो रहा था| आस पास कंटीली झाड़ियाँ, चमकती रेत जिस पर आसानी से चला जा सकता था| दूर दूर कुछ पेड़ नजर आ रहे थे, तकरीबन हर पेड़ के बिच २०० मीटर का फासला होंगा| मैं धीरे धीरे आगे बढते हुए दायें बाएं देखे जा रहा था, इंसान तो दूर, पंछियों के उड़ने की भी कहीं आहट नही थी| थोड़ी देर में रास्ता चढ़ाव का रूप ले रहा था| मुझे ना जाने क्यूँ बस आगे बढ़ते जाना था| मैं यह सोच भी नही रहा था की आखिर मैं जा कहाँ जा रहा हूँ|
              थोडा और चलने के बाद मैं रुक गया, मेरे सामने दो रास्ते थे, मेरे सामने संकरा और मेरी दायीं तरफ चौड़ा| दोनों ही रास्तो के किनारे पर कंटीली झाड़ियाँ का घेराव था| मैंने बिना वक़्त बर्बाद किए संकरे रास्ते की तरफ बढ़ना शुरू किया जिसका चढ़ाव पहले के मुकाबले थोडा ज्यादा था| मैं चढाव पे बेझिझक चढ़ा जा रहा था, ना बाएं देख रहा था, ना दायें, ना ही कुछ सोच रहा था, बस चला जा रहा था| चढ़ाव खत्म होते ही मैं दायें मुडा, मेरे सामने उबड़-खाबड़ सा मैदान था| कहीं छोटे खड्डे, कहीं बड़े, वो ही कंटीली झाड़ियाँ, 200 मीटर के फासले पर पेड़| इधर-उधर कोई नजर नहीं आ रहा था| धीरे-धीरे आगे बढ़ने के बाद एक ऊँचे स्थान पर चढ़ा| वहाँ खड़े होकर आगे की तरफ नजर डाली तो नजारा बदल चुका था, छोटे-छोटे तालाब, उनके आसपास अब वो कंटीली झाड़ियाँ नही थी| दूर कोई बहुत पुराना सा किला नजर आ रहा था|
              तभी कुछ आवाज सुनाई दी, मैंने बिना पलक झपकाए पीछे देखा,